गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

क्यों, आखिर क्यों



एक शहर ,
सब अंजान,
बनते है ये दिलवाले,
लेकिन नफ़रत ओढे हुए।
क्यों,
आखिर क्यों,
क्या यही दस्तूर है इस शहर का ।

एक मोहतरमा,
कुछ जानी-पहचानी,
बाते करती है आंखों से,
लेकिन नज़रे हिकारत भरी ।
क्यों,
आखिर क्यों,
क्या यही शउर है इस शहर का ।

एक दीवाना,
कुछ बेगाना सा,
मुस्कान को लपेटे हुए,
और लोग उसे पत्थर मारे ।
क्यों,
आखिर क्यों,
क्या यही नासूर है इस शहर का ।

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