शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

बुधवार, 15 दिसंबर 2010

अब जी चाहता है रोने को


अब जी चाहता है रोने को |
आंसुओ से पलके भिगोने को ||
क्यों याद मुझे आती हो तुम |
क्यों मुझे रुला ज़ाती हो तुम ||
ऐसे तुम याद ना आया करो |
ना ऐसे मुझे रुलाया करो ||
आना है तो सच में आओ |
सारी दुनिया को दिखलाओ ||
तुम आज भी मुझ पे मरती हो |
तुम प्यार मुझ ही से करती हो ||


-अंकित कुमार 'नक्षत्र'

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

शिकायत

शिकायत किस ज़बां से मै करूं उनके आने की ।
यही अहसान क्या कम है कि मेरे दिल में रहते है ॥

शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

गुरुवार, 25 नवंबर 2010

शाम हो्ते ही



शाम हो्ते ही चिरागो को बुझा देता हूं मै
ये मेरा दिल ही काफ़ी है तेरी यादों में ज़लने के लिये

बुधवार, 24 नवंबर 2010

खुशी



खुशी ही हो हर गम के पीछे ये ज़रूरी तो नही
कभी-कभी गम भी बन ज़ाता है मुस्कुराने की वज़ह।

गुरुवार, 18 नवंबर 2010

तुम



ज़ब दूर चली ज़ाती हो तुम
तब सहा नही ज़ाता मुझसे
ज़ब सामने आ ज़ाती हो तुम
कुछ कहा नही ज़ाता मुझसे

शनिवार, 13 नवंबर 2010

सिर्फ़ तुम



नाम की क्या बात करते हो
चेहरे तक भूल ज़ाते है लोग
तुम समंदर की बात करते हो
यहां तो आँखों में डूब ज़ाते है लोग

गुरुवार, 11 नवंबर 2010

भूल ज़ाता हूं



भूल ज़ाता हूं सब कुछ ज़ब नज़र आता है तेरा चेहरा।

ज़ल्दी बताओ मेरी ज़ान कब आऊं बांध कर सेहरा॥

सोमवार, 8 नवंबर 2010

आँखो ही आँखो में

आँखो ही आँखो में दिल दे दिया हमने
ना तो नाम पूछा और ना ही पता पूछा हमने
अब कहाँ ढूंढू उसे तन्हाइयों के सिवा
नही मिलती वो कहीं दिल की गहराइयों के सिवा

शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

खुद्दारी




अमीरे शहर के तोहफे मुझे कबूल नही ।
जो भीख मे मिले तो इज़्ज़त भी छोड आऊगा ॥


जब कुछ नही था हमारे पास, तब भी ना बिके हम ।
अब क्या खाक खरीदेगे ये दुनिया वाले हमे ॥


शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2010

तेरी याद में





खुद ही को भूल सा गया हूं मै,
क्यों इतना याद आती हो तुम्।
कभी तो सामने आ ज़ाओ मेरी ज़ान,
क्यों इतना सताती हो तुम्॥

गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

प्यारे सपने




कितने प्यारे होते है सपने
लेकिन कडवी होती है हकीकत
ज़ीना तो लोग चाहते है सपनो में
लेकिन फ़िर भी ज़ीना पडता है हकीकत में

मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

तेरी नफ़रत




तेरी नफ़रत से नही डरता हूं मै।
डर है कहीं तू मुझसे प्यार ना कर बैठे॥


एक गम क्या देखा, हार मान बैठे इस ज़िंदगी से ।
और मै इस दिल मे गमों का दरिया समाए बैठा हूं॥

शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

कुछ अनकही


हज़ारो बहाने है प्यार करने के लिये
फिर क्यों लोग एक बहाना ढूंढते है नफ़रत के लिए .....

सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

यादें तेरी

यादें तेरी


साथ मेरे हो तुम अगर , तो इस ज़िंदगी को भी छोड देंगे।
एक बार कहकर तो देखो, सारे ज़माने का रुख मोड देंगे॥


अश्क है इन आंखो मे, दिल पर वीरानी छाई है।
क्या करूं मै,आज़ फ़िर उनकी याद आई है।

गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

वो सुहाने दिन[कहानी][Part-5(अंतिम भाग)]

वो सुहाने दिन

[गतांक से आगे]

वातावरण का माहौल बहुत बोझिल हो चुका था। आखिर वातावरण के सन्नाटे को चीरते हुए मैने ही बात शुरु की - "तो फ़िर क्या सोचा तुमने? अगर तुम अपने घरवालो से बात करोगी तो क्या वो मान ज़ायेंगे?"
"वो कभी नही मानेंगे।"
"तो फ़िर"
"एक ही रास्ता है"
"क्या"
"घर से भागने का"
"इसके अलावा "
"मुझे भूल ज़ाओ"
"तुम भूल सकती हो"
" तो तुम कुछ करते क्यों नही"
"मुझे कुछ समझ नही आ रहा"
फ़िर हमारे बीच एक सन्नाटा पसर गया। बोले भी तो क्या? कुछ भी समझ मे नही आ रहा था।
"तुम अपने घरवालो से बात करो ज़ो होगा देखा ज़ायेगा।"
इसके आगे मैने कुछ नही कहा।
ज़ब उसके घरवालो को ये पता चला तो उसके घर मे कोहराम मच गया। उसका घर से निकलना बंद हो चुका था। उसके घरवालो ने उसका रिश्ता कहीं और तय कर दिया था। मैने उससे मिलने की बहुत कोशिश की लेकिन नही मिल पाया। और एक दिन जो मुझे पता चला उससे मेरे पैरो तले की ज़मीन खिसक गई। पुष्पा ने सुसाइड कर लिया था। सुसाइड नोट मे उसने यही लिखा था कि उसके घरवाले उसकी शादी उसकी मर्ज़ी के खिलाफ़ कहीं और कर रहे है इसलिये उसने ये कदम उठाया। मेरी तो दुनिया ही वीरान हो गई थी। इसके लिये कहीं ना कहीं तो मै भी ज़िम्मेदार था। अगर मै उसकी बात मान लेता तो शायद ये घटना ना होती। लेकिन होनी को कुछ और ही मंज़ूर था। अब मेरे पास पछतावे के सिवाय कुछ नही था।

काश मैने उसकी बात मान ली होती तो शायद, शायद,……………………………………………………… …………… बस आगे कुछ कहा नही जाता।
[ समाप्त ]

-अंकित
गुरूवार, 07/10/2010

सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

तुम


तुम

कितनी सुंदर आंखे है तेरी
डूब ज़ाने को ज़ी चाहता है इनमे।
काली घटा ज़ैसी ज़ुल्फ़े है तेरी
समा ज़ाने को मन करता है इनमे।

वो सुहाने दिन[कहानी] (Part-4)

वो सुहाने दिन

[गतांक से आगे]


एक दिन ज़ब वो मुझसे मिली तो कुछ ज़्यादा ही चिंतित दिखाई दे रही थी। और ज़ो उसने बताया उसने मुझे भी चिंता मे डाल दिया। उसने मुझे बताया कि उसके घरवाले उसकी शादी की बात चला रहे है।
"मै तुम्हारे बिना नही रह पाउंगी विज़य" उसकी आवाज़ मे दर्द था और डर भी ज़िससे मै अंदर तक सिहर गया। मुझे समझ नही आ रहा था कि मै क्या करूं।
"तुमने क्या सोचा है?" मैने उसकी और देखा।
"मै मर ज़ाऊंगी लेकिन तुम्हारे सिवाय किसी और के बारे मे सोच भी नही सकती। तुम मेरा साथ दोगे ना विज़य"
मुझे चुप देखकर उसकी चिंता और बढ गई।
"क्या सोच रहे हो?"
"यही कि क्या किया जाये?"
"तुम मुझसे शादी कर लो। हम यहां से कहीं दूर चले ज़ायेंगे।"
"लेकिन हमारे घरवालो की कितनी बदनामी होगी"
"तुम मुझसे शादी करोगे या नही"
"मै अभी कुछ नही कह सकता।"
"क्यो? मुझसे प्यार नही करते हो।"
"लेकिन ……………"
"लेकिन-वेकिन कुछ नही, हां या ना"
"हां"
"मेरा साथ दोगे"
"किसलिये?"
"घर से भाग चलते है।"
"पागल हो गई हो क्या"
"हां, पागल ही समझो"
"ये मुझसे नही होगा"
"तो फ़िर क्या होगा तुमसे"
"मै घर से नही भाग सकता"
"तो फ़िर मुझे मार दो। तुम्हारे बिना जीने से तो मरना अच्छा है"
"पुष्पा, प्लीज़ ऐसे मत बोलो"
"तो क्या करू……………" वो अपनी बात पूरी नही कर पाई थी और रोते-रोते उसका गला रुंध गया।
"आई हेट टियर्स, पुष्पा "
ये सुनते ही वो हँस पडती थी। लेकिन आज़ तो हँसी हम दोनो के चेहरे से कोसो दूर थी।………………………………

शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

दिल चाहता है



दिल चाहता है

कितनी नशीली आंखे है तेरी
इनमे डूब जाने को दिल चाहता है ।

दिल नही लगता कहीं भी
तुझसे मिलने को दिल चाहता है ।

रह ना सकेंगे तेरे बगैर
सारे ज़माने को दुश्मन बनाने को दिल चाहता है ।

वो सुहाने दिन[कहानी] (Part-3)



वो सुहाने दिन

[गतांक से आगे]

उसके बाद यूं ही दिन गुज़रने लगे। हम लगभग रोज़ाना ही मिलते थे। रविवार का दिन बडी मुश्किल से कटता था। एक दिन उसने मुझसे पूछा -" क्या तुम मुझे पसंद करते हो?"मुझे सीधा-सीधा ज़वाब देने की आदत नही है। मैने कहा - " तुम ऐसे क्यों पूछ रही हो।"
"ज़ितना पूछा उतना बताओ"
"हां" सक्षिप्त सा उत्तर दिया मैने।
"क्या हां"
"हां तुम मुझे पसंद हो।"
"सच बोल रहे हो?"
"क्या तुम सीरियस हो?"
"हां"
" आई लाइक यू"
"कितना?"
"तुम सोच भी नही सकती"
"क्या मै तुम पर यकीन कर सकती हूं"
"तुम इतना सीरियस क्यों हो आज़"
"बस ऐसे ही। कभी-कभी डर लगता है।"
"कैसा डर?"
"विज़य, तुम हमेशा मेरे साथ रहोगे ना? छोड तो नही दोगे ना तुम मुझे"
"तुम्हे क्या लगता है?"
"मेरी छोडो। तुम अपनी बताओ"
"नही, कभी नही"
"और तुम"
"मै तो तुम्हारे बिना अपनी ज़िंदगी की कल्पना भी नही कर सकती।"
कभी-कभी वो अचानक ही सीरियस हो जाती थी। और इसी तरह बात करती थी।

ज़ब मै उसके साथ होता था तो टाइम का बिल्कुल भी ध्यान नही रहता था। और उसके बिना एक-एक पल वर्षो के समान लगता था। अब हम दोनो कभी-कभी कालेज़ बंक करके मूवी देखने चले जाते थे। हमे डर तो बहुत लगता था कि कहीं कोई जान-पहचान का ना मिल जाये। लेकिन छुपकर प्यार करने का मज़ा ही कुछ और है। और फ़िर इतना रिस्क तो लेना ही पडता है।…………………………………………………

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

वो सुहाने दिन [कहानी] (Part-2)



वो सुहाने दिन
[गतांक से आगे] अगले दिन मै बहुत ज़्यादा उत्साहित था। लेकिन मेरी सारी उम्मीदो पर पानी फ़िर गया क्योंकि वो आज़ नही आई थी। मुझे उस पर बहुत गुस्सा आ रहा था। लेकिन मै कर भी क्या सकता था। आज़ किसी भी काम में मेरा मन नही लग रहा था। अब मै कल का इंतज़ार कर रहा था। मैने बहुत से लोगो को कहते सुना था कि इंतज़ार का मज़ा ही कुछ और होता है। लेकिन सच बताऊ मुझे तो बिल्कुल भी मज़ा नही आ रहा था। अब इंतज़ार करने के सिवाय मेरे पास कोई चारा नही था।
आज़ मै कालेज ज़ाने के लिये ज़ल्दी ही तैयार हो गया था। शायद मुझे उससे मिलने की ज़ल्दी थी। वरना मुझे याद नही कि मै पिछ्ली बार कब टाइम से कालेज़ गया था।
ज़ैसे ही वो बस मे चढी, मैने केवल एक बार उसकी तरफ़ देखा। फ़िर पूरे रास्ते मैने उसकी तरफ़ नही देखा। बस से उतरने के बाद मै उसके पीछे तो गया लेकिन मैने उससे बात नही की। उसने शुरूआत की - " सारी, मै कल नही आ पाई थी।"
"मैने पूछा क्या?"
"मै बता तो रही हूं"
"अब क्यो बता रही हो? ज़ब मैने पहले ही तुमसे पूछा था तब नही बता सकती थी।"
"तब मुझे भी नही पता था।"
"क्यों?"
"मम्मी की तबीयत ठीक नही थी। इसलिये मुझे घर रूकना पडा था।"
मै थोडी देर तक चुप रहा तो उसने पूछा - " अभी भी मुझसे नाराज़ हो क्या?"
"मै तुमसे नही खुद से नाराज़ हूं"
"इसमे तुम्हारी गलती नही तुम्हारी ज़गह मै होती तो मुझे भी गुस्सा आ ज़ाता"
"अच्छा कितना गुस्सा आता है तुम्हे?"
"तुम से ज़्यादा"
"कब आयेगा?"
"ज़ब तुम दिलाओगे"
"क्या?"
"गुस्सा, और क्या"
मै हँसने लगा और वो भी।
"मै कोशिश करूंगा कि तुम्हे गुस्सा ना आए"
"क्यों?"
"क्योंकि गुस्से मे तुम्हारा चेहरा अच्छा नही लगता।"
"तो कब अच्छा लगता है?"
"ज़ब तुम मुस्कुराती हो।"
"कितनी अच्छी लगती हूं मै तुम्हे?"
"ज़्यादा नही"
"तो फ़िर रोज़ मेरे पीछे क्यों आते हो?"
"टाइमपास करने के लिये"
"मै ही मिली हूं टाइम पास करने के लिये"
"हां, क्योंकि तुम अच्छी लगती हो।"
"अभी तो तुमने कहा कि मै ज़्यादा अच्छी नही लगती हूं"
"अच्छी लगती हो , ज़्यादा अच्छी नही"
"ज़ाओ तुम और आज़ के बाद मुझसे बात मत करना"
"तुम तो नाराज़ हो गई। अरे मै तो मज़ाक कर रहा था।"
"मुझे इस तरह का मज़ाक पसंद नही है।"
"ठीक है आगे से नही करूंगा"
थोडी देर बात करने के बाद मै कालेज़ चला गया। उसके बाद ………………………………………

गुरुवार, 30 सितंबर 2010

वो सुहाने दिन [कहानी] (Part-1)

वो सुहाने दिन

अर्धवार्षिक परीक्षाओं के बाद हमारे कालेज़ नये-नये खुले थे। मै रोज़ाना की तरह बस से जा रहा था कि मेरी नज़रे एक लडकी से टकराई। उसके बाद कई बार मैने उसकी तरफ़ और उसने मेरी तरफ़ देखा। वो लडकी भी बस से ही कालेज़ जाती थी। लेकिन पहले कभी मैने उसे इस तरह नही देखा था। अब ये नज़रे मिलने-मिलाने का सिलसिला रोजाना चलने लगा। कभी-कभी अगर वो नही आती थी तो मै बहुत उदास हो जाता था। एक दिन मै कालेज़ ना ज़ाकर उसके पीछे चला गया। उसने मुझे अपने पीछे आते हुए देख लिया था। लेकिन ना तो मै उससे कुछ कह पाया और ना ही वो मुझसे कुछ कह पाई। अगले दिन मैने सोचा कि आज़ कुछ भी हो जाये मै उससे बात करके ही रहूंगा। आज़ मै उसके साथ-साथ चल रहा था लेकिन मै उससे कुछ कह नही पाया। अचानक उसने मुझसे पूछा - "आपका कालेज़ किस टाइम से हैं?" मैने कहा - "है तो नौ बजे से ही।" वो बोली - "आपको देर नही हो रही है।" मैने कहा - "हां, हो तो रही है।" उसने कहा - "तो फ़िर इतना धीरे-धीरे क्यों चल रहे हैं?" मैने कहा - " बस यूं ही।"
मैने उससे पूछा - " तुम्हारा नाम क्या है?" उसने कहा - "क्यों? क्या करोगे नाम पूछ्कर?" मैने कहा - "बस ऐसे ही।" उसने कहा - "पुष्पा।" मेरे मुंह से अचानक ही निकल गया - " आई हेट टियर्स पुष्पा।" वो हंसने लगी और मै भी। उसने पूछा - "अपना नाम भी बता दो।" अब मेरी बारी थी। ज़वाब देने के बज़ाय मैने सवाल दाग दिया - " तुम क्या करोगी मेरा नाम पूछ्कर?" वो थोडा गुस्से से बोली - "तुम मेरा नाम पूछ सकते हो मगर मै तुम्हारा नाम नही पूछ सकती।" "नही, पूछ सकती हो" - मैने कहा " विज़य, विज़य चौधरी नाम है मेरा।" वो बोली - " अच्छा नाम हैं।" मैने कहा - "तुम्हारा भी " तो कहने लगी - "पहले तो नही कहा था।" मैने कहा - "अब तो कह दिया।" मैने घडी में टाइम देखा। साढे नौ बज़ रहे थे। मुझे लगा कि अब अगर मैने ज़्यादा देर की तो कालेज़ नही पहुंच पाऊंगा। मैने उससे कहा - " मुझे देर हो रही है; अब मै चलता हूं।" उसने कहा - "ठीक है, ज़ाओ।" मैने पूछा - " कल भी आओगी" कहने लगी - " क्यो?" मैने कहा - "बस यूं ही।" वो बोली - "तुम यूं ही बहुत पूछ्ते हो" मैने कहा - "हां, बस यूं ही" उसके बाद मै कालेज़ ज़ाने लगा। मैने पीछे मुडकर उसे देखा तो वो मेरी तरफ़ मुस्कुरा दी। मै भी मुस्कुरा दिया। फ़िर मै कालेज़ चला गया। अगले दिन …………………………………

- अंकित

बुधवार, 29 सितंबर 2010

कहां गई वो




कुछ ढूंढ्ता रहता हूं दिल ही दिल मे

लेकिन कुछ नही मिलता उसकी यादों के सिवा ।

सोचता हूं जला दूं उसकी यादो को

लेकिन डरता हूं कहीं ज़ल ना जाऊं खुद ही ।

.........................................................

कुछ यादें




यूं इल्जाम ना लगाओ मेरे दामन पर

कि हम गैरो की ज़ुल्फ़ों मे सोते है ।

सारी रात भीगा हूं अश्को की बारिश में

हम वो नही जो महफ़िल मे आके रोते है ॥


मंगलवार, 28 सितंबर 2010

पहली बार [कहानी]


पहली बार

वार्षिक परीक्षाएं समाप्त होने के बाद मै घर गया हुआ था। घर जाने पर मुझे पता चला कि दस दिन बाद मेरी मौसी के लडके की शादी हैं। मम्मी ने मुझे जाने के लिये बोला तो मै तुरन्त ही जाने के लिये तैयार हो गया। पहले मुझे मामाजी के पास जाना था। उसके बाद मौसी के घर जाना था। इसलिये मै घर से दो दिन पहले ही मामाजी के पास चला गया। फ़िर मै मामाजी के साथ सगाई वाले दिन मौसी के घर गया। जब हम वहां पहुचे तो ज्यादातर मेहमान आ चुके थे। तभी मेरी मौसी की लडकी मेरे पास आई और बोली कि भैया मेरे साथ चलो आपको किसी से मिलवाना है। मैने उससे पुछा कि कौन है लेकिन उसने नही बताया। मैने कहा कि चलो ठीक है मै तुम्हारे साथ चलता हूं। उसने मुझे अपनी सहेली से मिलवाया जो कि मुझसे मिलना चाहती थी। लेकिन जब मैने उससे पूछा कि क्या आप मुझसे मिलना चाहती थी तो उसने मना कर दिया। फ़िर मै जाने लगा तो उसने मेरी बहन से मुझे रोकने के लिये कहा । जैसे ही मै पीछे मुडा तो उसने कहा- " हां, मै ही आपसे मिलना चाहती थी। आप मुझे बहुत अच्छे लगते हो। " मुझे ये सुनकर बहुत अजीब सा लगा। ऐसा नही था कि वो लडकी मुझे अच्छी नही लगी थी। लेकिन मै उससे पहली बार मिला था। मैने उससे पूछा कि आप मेरे बारे मे कुछ जानती भी हो या फ़िर अभी देखा और अच्छा लगने लगा। उसने मुझे बताया कि जब मै पिछ्ली बार मौसी के घर आया था तब उसने मुझे देखा था। लेकिन तब वो मुझसे बात नही कर पाई थी। फ़िर उसने मेरी बहन की तरफ़ इशारा करके बताया - "मैने इनसे आपके बारे मे पूछा था।" तब मुझे समझ मे आया कि ये सब मेरी बहन की करामात है। मैने उससे कहा कि मै तो तुम्हे अच्छा लगता हू लेकिन ये ज़रूरी तो नही कि मै भी तुम्हे पसन्द करु। वो कहने लगी - "आप मुझे अच्छे लगते हो बाकी मुझे कुछ नही पता।" मैने कहा कि तुम पागल हो; तो कहने लगी जो चाहे समझो। फ़िर उसने मुझे अपना नाम बताया। अनामिका नाम था उसका। मैने कहा कि मेरा नाम तो तुम्हे पता ही होगा। वो बोली कि पता तो है फ़िर भी एक बार आप बताएंगे तो मुझे अच्छा लगेगा। " विजय कहते है दुनिया वाले मुझे। " - मैने कहा। कहने लगी मुझे आपका अंदाज अच्छा लगा। मैने कहा कि मुझे भी तो अपने बारे मे कुछ बताओ। उसने कहा कि पहले ये बताओ कि मै तुम्हे अच्छी लगती हूं या नही। अच्छी तो वो मुझे लग रही थी। मैने कहा कि तुम्हरी आवाज बहुत अच्छी है। वो बोली - "और मै ।" मैने कहा कि हां तुम भी । उसके चेहरे पर मुस्कान फ़ैल गई। मै भी मुस्कुरा दिया। तभी मेरी बहन आ गयी और बोली - " क्या बातें हो रही है दोनो में।" मैने कहा - " कुछ नही ।" तो बोलने लगी - "कोई बात नही भैया। मत बताइये, मै अपनी सहेली से पूछ लूंगी।" मैने कहा - " ठीक है पूछ लेना।" फ़िर मुझसे बोली कि भैया मै अनामिका को अपने साथ ले जाऊं। मैने कहा कि कही भी ले जाओ मुझसे क्या पूछ्ती हो। तो बोली -"भैया, अब तो इसे ले जाने के लिये आपसे ही पूछ्ना पडेगा। "मैने कहा कि ठीक है अब मेरा दिमाग खराब मत कर्। कहने लगी "हां भैया अब तो हम आपका दिमाग खराब कर रहे है।" मैने कहा ठीक है अब तुम जाओ। मैने अनामिका से पुछा कि कितनी देर मे आओगी। तो कहने लगी कि मै तो जाना ही नही चाहती लेकिन क्या करुं मजबूरी है जाना तो पडेगा। मैने कहा - "ठीक है ज़ल्दी आना।"
…………………………………………………………………………………………………………………
…………………………………………………………………………………………………………………बाकी फ़िर

सोमवार, 27 सितंबर 2010

उनकी याद में



जिये जा रहे है ........ पता नही क्यो ......... जीने के लिये ........या फिर ....………………किसी के सपनों के लिये ॥

मंगलवार, 21 सितंबर 2010

अंदाज़ शायराना

शायराना अंदाज़


आंखो मे है गम के आंसू और होठो पे फ़रियाद है
अब क्या है पास हमारे बस एक तेरी याद है………………॥



बदनाम हुए सारी दुनिया मे और
खता सिर्फ़ इतनी ................



कि उनसे नज़रे मिल गई

स्वीटी - मेरा प्यार [कहानी] (Part-1)

स्वीटी – मेरा प्यार
आज जब मै काफ़ी हाऊस गया तो मैने अपनी टेबल पर एक लडकी को बैठे देखा । मै उस काफ़ी हाउस मे रोज़ाना जाता था और उसी टेबल पर बैठता था । पर मैने पहले उसे वहां कभी नही देखा । पता नही वो कौन थी लेकिन थी बहुत खूबसूरत । कोई एक बार देख ले तो देखता ही रह जाये । हुआ तो मेरे साथ भी यही था । मेरा दिल मेरे काबू में नही था । आज जब मै टेबल की तरफ़ जा रहा था तो मेरे पैरो मे कंपकंपाहट सी हो रही थी । लेकिन फिर भी मै हिम्मत करके उसी टेबल पर जाकर बैठ गया ।
मैने सोचा था कि एक बार टेबल पर बैठ जाऊ, फिर बात तो मै उससे कर ही लूगां । लेकिन मेरा अंदाजा गलत था मै आधे घण्टे तक कुछ भी नही कह पाया । लेकिन मै कनखियों से उसे देख ज़रूर रहा था । और कभी-कभी तो मुझे लगता कि वो भी मुझे देख रही है लेकिन ये मेरा भ्रम भी हो सकता था । क्योकि हमे वही दिखाई देता है जो हम देखना चाहते है और वही सुनाई देता है जो हम सुनना चाहते है ।
आखिरकार उसी ने बात शुरु की । उसने पूछा “आपका नाम क्या है ?” मेरे मुंह से शब्द नही निकल पा रहे थे । मै बडी मुश्किल से बोल पाया “ वि.....वि…॥विजय औ....र आपका ?” शायद पहली बार मै हकलाकर बोला था । उसने अपना नाम बताया “ लोग मुझे स्वीटी बुलाते हैं।“ मैने पूछा “और मै क्या बुलाऊं ?” वो खिलखिलाकर हंसी और कहा “आप भी स्वीटी ही बुलाइये ।“ बस उसकी इसी हंसी ने मुझे दीवाना बना दिया । मेरे मन मे लड्डू फ़ूट रहे थे । लग रहा था कि आज तो किस्मत मेहेरबान हो गयी लगती है लेकिन उसके अगले सवाल ने मुझे चोंका दिया । उसने पुछा “ क्या आप लडकियो को ऐसे ही घूरते है ?” मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी । मुझसे कुछ भी जवाब देते नही बन रहा था…………………………….......

…………………………बाकी फिर


-अंकित कुमार

शुक्रवार, 22 जनवरी 2010

शायरी

शायरी

लोग रुक-रुक कर संभलते क्यों है

डर लगता है इतना

तो घर से निकलते क्यों है

मैं ना दीया हू ना कोई तारा हू

रोशनी वाले मेरे नाम से जलते क्यों है

मोड होता है जवानी का संभलने के लिए


अक्सर इस मोड पर लोग फिसलते क्यों है