शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

खुद्दारी




अमीरे शहर के तोहफे मुझे कबूल नही ।
जो भीख मे मिले तो इज़्ज़त भी छोड आऊगा ॥


जब कुछ नही था हमारे पास, तब भी ना बिके हम ।
अब क्या खाक खरीदेगे ये दुनिया वाले हमे ॥


शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2010

तेरी याद में





खुद ही को भूल सा गया हूं मै,
क्यों इतना याद आती हो तुम्।
कभी तो सामने आ ज़ाओ मेरी ज़ान,
क्यों इतना सताती हो तुम्॥

गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

प्यारे सपने




कितने प्यारे होते है सपने
लेकिन कडवी होती है हकीकत
ज़ीना तो लोग चाहते है सपनो में
लेकिन फ़िर भी ज़ीना पडता है हकीकत में

मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

तेरी नफ़रत




तेरी नफ़रत से नही डरता हूं मै।
डर है कहीं तू मुझसे प्यार ना कर बैठे॥


एक गम क्या देखा, हार मान बैठे इस ज़िंदगी से ।
और मै इस दिल मे गमों का दरिया समाए बैठा हूं॥

शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

कुछ अनकही


हज़ारो बहाने है प्यार करने के लिये
फिर क्यों लोग एक बहाना ढूंढते है नफ़रत के लिए .....

सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

यादें तेरी

यादें तेरी


साथ मेरे हो तुम अगर , तो इस ज़िंदगी को भी छोड देंगे।
एक बार कहकर तो देखो, सारे ज़माने का रुख मोड देंगे॥


अश्क है इन आंखो मे, दिल पर वीरानी छाई है।
क्या करूं मै,आज़ फ़िर उनकी याद आई है।

गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

वो सुहाने दिन[कहानी][Part-5(अंतिम भाग)]

वो सुहाने दिन

[गतांक से आगे]

वातावरण का माहौल बहुत बोझिल हो चुका था। आखिर वातावरण के सन्नाटे को चीरते हुए मैने ही बात शुरु की - "तो फ़िर क्या सोचा तुमने? अगर तुम अपने घरवालो से बात करोगी तो क्या वो मान ज़ायेंगे?"
"वो कभी नही मानेंगे।"
"तो फ़िर"
"एक ही रास्ता है"
"क्या"
"घर से भागने का"
"इसके अलावा "
"मुझे भूल ज़ाओ"
"तुम भूल सकती हो"
" तो तुम कुछ करते क्यों नही"
"मुझे कुछ समझ नही आ रहा"
फ़िर हमारे बीच एक सन्नाटा पसर गया। बोले भी तो क्या? कुछ भी समझ मे नही आ रहा था।
"तुम अपने घरवालो से बात करो ज़ो होगा देखा ज़ायेगा।"
इसके आगे मैने कुछ नही कहा।
ज़ब उसके घरवालो को ये पता चला तो उसके घर मे कोहराम मच गया। उसका घर से निकलना बंद हो चुका था। उसके घरवालो ने उसका रिश्ता कहीं और तय कर दिया था। मैने उससे मिलने की बहुत कोशिश की लेकिन नही मिल पाया। और एक दिन जो मुझे पता चला उससे मेरे पैरो तले की ज़मीन खिसक गई। पुष्पा ने सुसाइड कर लिया था। सुसाइड नोट मे उसने यही लिखा था कि उसके घरवाले उसकी शादी उसकी मर्ज़ी के खिलाफ़ कहीं और कर रहे है इसलिये उसने ये कदम उठाया। मेरी तो दुनिया ही वीरान हो गई थी। इसके लिये कहीं ना कहीं तो मै भी ज़िम्मेदार था। अगर मै उसकी बात मान लेता तो शायद ये घटना ना होती। लेकिन होनी को कुछ और ही मंज़ूर था। अब मेरे पास पछतावे के सिवाय कुछ नही था।

काश मैने उसकी बात मान ली होती तो शायद, शायद,……………………………………………………… …………… बस आगे कुछ कहा नही जाता।
[ समाप्त ]

-अंकित
गुरूवार, 07/10/2010

सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

तुम


तुम

कितनी सुंदर आंखे है तेरी
डूब ज़ाने को ज़ी चाहता है इनमे।
काली घटा ज़ैसी ज़ुल्फ़े है तेरी
समा ज़ाने को मन करता है इनमे।

वो सुहाने दिन[कहानी] (Part-4)

वो सुहाने दिन

[गतांक से आगे]


एक दिन ज़ब वो मुझसे मिली तो कुछ ज़्यादा ही चिंतित दिखाई दे रही थी। और ज़ो उसने बताया उसने मुझे भी चिंता मे डाल दिया। उसने मुझे बताया कि उसके घरवाले उसकी शादी की बात चला रहे है।
"मै तुम्हारे बिना नही रह पाउंगी विज़य" उसकी आवाज़ मे दर्द था और डर भी ज़िससे मै अंदर तक सिहर गया। मुझे समझ नही आ रहा था कि मै क्या करूं।
"तुमने क्या सोचा है?" मैने उसकी और देखा।
"मै मर ज़ाऊंगी लेकिन तुम्हारे सिवाय किसी और के बारे मे सोच भी नही सकती। तुम मेरा साथ दोगे ना विज़य"
मुझे चुप देखकर उसकी चिंता और बढ गई।
"क्या सोच रहे हो?"
"यही कि क्या किया जाये?"
"तुम मुझसे शादी कर लो। हम यहां से कहीं दूर चले ज़ायेंगे।"
"लेकिन हमारे घरवालो की कितनी बदनामी होगी"
"तुम मुझसे शादी करोगे या नही"
"मै अभी कुछ नही कह सकता।"
"क्यो? मुझसे प्यार नही करते हो।"
"लेकिन ……………"
"लेकिन-वेकिन कुछ नही, हां या ना"
"हां"
"मेरा साथ दोगे"
"किसलिये?"
"घर से भाग चलते है।"
"पागल हो गई हो क्या"
"हां, पागल ही समझो"
"ये मुझसे नही होगा"
"तो फ़िर क्या होगा तुमसे"
"मै घर से नही भाग सकता"
"तो फ़िर मुझे मार दो। तुम्हारे बिना जीने से तो मरना अच्छा है"
"पुष्पा, प्लीज़ ऐसे मत बोलो"
"तो क्या करू……………" वो अपनी बात पूरी नही कर पाई थी और रोते-रोते उसका गला रुंध गया।
"आई हेट टियर्स, पुष्पा "
ये सुनते ही वो हँस पडती थी। लेकिन आज़ तो हँसी हम दोनो के चेहरे से कोसो दूर थी।………………………………

शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

दिल चाहता है



दिल चाहता है

कितनी नशीली आंखे है तेरी
इनमे डूब जाने को दिल चाहता है ।

दिल नही लगता कहीं भी
तुझसे मिलने को दिल चाहता है ।

रह ना सकेंगे तेरे बगैर
सारे ज़माने को दुश्मन बनाने को दिल चाहता है ।

वो सुहाने दिन[कहानी] (Part-3)



वो सुहाने दिन

[गतांक से आगे]

उसके बाद यूं ही दिन गुज़रने लगे। हम लगभग रोज़ाना ही मिलते थे। रविवार का दिन बडी मुश्किल से कटता था। एक दिन उसने मुझसे पूछा -" क्या तुम मुझे पसंद करते हो?"मुझे सीधा-सीधा ज़वाब देने की आदत नही है। मैने कहा - " तुम ऐसे क्यों पूछ रही हो।"
"ज़ितना पूछा उतना बताओ"
"हां" सक्षिप्त सा उत्तर दिया मैने।
"क्या हां"
"हां तुम मुझे पसंद हो।"
"सच बोल रहे हो?"
"क्या तुम सीरियस हो?"
"हां"
" आई लाइक यू"
"कितना?"
"तुम सोच भी नही सकती"
"क्या मै तुम पर यकीन कर सकती हूं"
"तुम इतना सीरियस क्यों हो आज़"
"बस ऐसे ही। कभी-कभी डर लगता है।"
"कैसा डर?"
"विज़य, तुम हमेशा मेरे साथ रहोगे ना? छोड तो नही दोगे ना तुम मुझे"
"तुम्हे क्या लगता है?"
"मेरी छोडो। तुम अपनी बताओ"
"नही, कभी नही"
"और तुम"
"मै तो तुम्हारे बिना अपनी ज़िंदगी की कल्पना भी नही कर सकती।"
कभी-कभी वो अचानक ही सीरियस हो जाती थी। और इसी तरह बात करती थी।

ज़ब मै उसके साथ होता था तो टाइम का बिल्कुल भी ध्यान नही रहता था। और उसके बिना एक-एक पल वर्षो के समान लगता था। अब हम दोनो कभी-कभी कालेज़ बंक करके मूवी देखने चले जाते थे। हमे डर तो बहुत लगता था कि कहीं कोई जान-पहचान का ना मिल जाये। लेकिन छुपकर प्यार करने का मज़ा ही कुछ और है। और फ़िर इतना रिस्क तो लेना ही पडता है।…………………………………………………

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

वो सुहाने दिन [कहानी] (Part-2)



वो सुहाने दिन
[गतांक से आगे] अगले दिन मै बहुत ज़्यादा उत्साहित था। लेकिन मेरी सारी उम्मीदो पर पानी फ़िर गया क्योंकि वो आज़ नही आई थी। मुझे उस पर बहुत गुस्सा आ रहा था। लेकिन मै कर भी क्या सकता था। आज़ किसी भी काम में मेरा मन नही लग रहा था। अब मै कल का इंतज़ार कर रहा था। मैने बहुत से लोगो को कहते सुना था कि इंतज़ार का मज़ा ही कुछ और होता है। लेकिन सच बताऊ मुझे तो बिल्कुल भी मज़ा नही आ रहा था। अब इंतज़ार करने के सिवाय मेरे पास कोई चारा नही था।
आज़ मै कालेज ज़ाने के लिये ज़ल्दी ही तैयार हो गया था। शायद मुझे उससे मिलने की ज़ल्दी थी। वरना मुझे याद नही कि मै पिछ्ली बार कब टाइम से कालेज़ गया था।
ज़ैसे ही वो बस मे चढी, मैने केवल एक बार उसकी तरफ़ देखा। फ़िर पूरे रास्ते मैने उसकी तरफ़ नही देखा। बस से उतरने के बाद मै उसके पीछे तो गया लेकिन मैने उससे बात नही की। उसने शुरूआत की - " सारी, मै कल नही आ पाई थी।"
"मैने पूछा क्या?"
"मै बता तो रही हूं"
"अब क्यो बता रही हो? ज़ब मैने पहले ही तुमसे पूछा था तब नही बता सकती थी।"
"तब मुझे भी नही पता था।"
"क्यों?"
"मम्मी की तबीयत ठीक नही थी। इसलिये मुझे घर रूकना पडा था।"
मै थोडी देर तक चुप रहा तो उसने पूछा - " अभी भी मुझसे नाराज़ हो क्या?"
"मै तुमसे नही खुद से नाराज़ हूं"
"इसमे तुम्हारी गलती नही तुम्हारी ज़गह मै होती तो मुझे भी गुस्सा आ ज़ाता"
"अच्छा कितना गुस्सा आता है तुम्हे?"
"तुम से ज़्यादा"
"कब आयेगा?"
"ज़ब तुम दिलाओगे"
"क्या?"
"गुस्सा, और क्या"
मै हँसने लगा और वो भी।
"मै कोशिश करूंगा कि तुम्हे गुस्सा ना आए"
"क्यों?"
"क्योंकि गुस्से मे तुम्हारा चेहरा अच्छा नही लगता।"
"तो कब अच्छा लगता है?"
"ज़ब तुम मुस्कुराती हो।"
"कितनी अच्छी लगती हूं मै तुम्हे?"
"ज़्यादा नही"
"तो फ़िर रोज़ मेरे पीछे क्यों आते हो?"
"टाइमपास करने के लिये"
"मै ही मिली हूं टाइम पास करने के लिये"
"हां, क्योंकि तुम अच्छी लगती हो।"
"अभी तो तुमने कहा कि मै ज़्यादा अच्छी नही लगती हूं"
"अच्छी लगती हो , ज़्यादा अच्छी नही"
"ज़ाओ तुम और आज़ के बाद मुझसे बात मत करना"
"तुम तो नाराज़ हो गई। अरे मै तो मज़ाक कर रहा था।"
"मुझे इस तरह का मज़ाक पसंद नही है।"
"ठीक है आगे से नही करूंगा"
थोडी देर बात करने के बाद मै कालेज़ चला गया। उसके बाद ………………………………………