अंत एक दीवाने का, हुआ कुछ इस तरह ।
पेड से सूखे पत्ते, टूट जाए जिस तरह ॥
तमन्ना एक इस दिल की,
थोडा प्यार पाने की ।
अपना वजूद मिटाकर भी,
तेरा ऐतबार पाने की ॥
मौहब्बत में उसकी,
था सब कुछ लुटा दिया ।
मैने तो उसको ही,
अपनी दौलत बना लिया ॥
जिस पल इन हाथो से उसका हाथ छूट गया ।
ऐसा लगा जैसे कोई खूबसूरत,
तोहफ़ा टूट गया ॥
कहा था सनम ने, ना चेहरा दिखाना कभी ।
ना ही खुद आना, ना मुझे बुलाना कभी ॥
कुछ दिन पहले वो,
मिला करती थी बडी शिद्दत से ।
आज ऐसे मिली जैसे,
मिली ना हो मुद्दत से ॥
कहा था उस बेवफ़ा ने,
मुझे भुला देना ।
भूलकर मुझे, कही और दिल लगा लेना ॥
यादों में उसकी रोकर,
कितनी रातें गुजार दी ।
दूर उससे होकर, उसकी जिंदगी सवार दी ॥
मेरे प्यार से उसका दिल,
पिंघल ना सका ।
अचानक उसके वार से मै,
संभल ना सका ॥
उसका घर रोशन करने को, था
खुद को जला दिया ।
इन आंखों से अश्कों का,
समंदर बहा दिया ॥
उसे शायद अश्कों से मेरे,
मुहब्बत हो गई ।
तभी तो सब कुछ भूलकर वो,
बेवफ़ा हो गई ॥
मै चाहकर भी उसे दिल से,
निकाल ना सका ।
भूलकर उसे खुद को,
संभाल ना सका ॥
कद्र नही थी आंसुओं की मेरे,
आंखों में उसकी ।
झलकती थी नफ़रत ही फ़कत,
बातों में उसकी ॥
हराकर मेरे प्यार को,
जीत उसकी हो गई ।
उसकी नफरत के बीच,
मेरी हस्ती खो गई ॥
नही महफ़िलें सजती अब,
यारों संग पीने की ।
इच्छा नही होती अब,
उसे भूलकर जीने की ॥
सनम को खोकर जीने का,
हौंसला नही रहा ।
मेरे संग उसका आज,
फ़ैंसला नही रहा ॥
खो दिया है यार को,
अब जिंदा क्यों रहूँ ।
इतने गमों का बोझा,
इस दिल पर क्यों सहूँ ।।
कभी लडखडा जाते थे,
सीढ़ियां चढते हुए ।
काँपे नही कदम आज,
मौत की तरफ़ बढते हुए ॥
उठाकर जहर की शीशी,
होंठों से लगा ली ।
और देखते ही देखते,
गलें मे समा ली ॥
छोडकर सनम को जब,
ना रहा ‘नक्षत्र’
खास सा ।
बेसुध होकर गिर पडा था,
सर कटी लाश सा ॥
-अंकित
कुमार ‘नक्षत्र’